LS18 महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन || सद्गुरुदेव के १३१ प्रिय भजनों में भक्तियोग, ध्यानयोग, सुरतशब्दयोग आदि से सम्बन्धित बातें हैं.
LS18 महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन
सद्गुरुदेव के १३१ प्रिय भजनों में भक्तियोग, ध्यानयोग, सुरतशब्दयोग आदि से सम्बन्धित बातें
गुरुदेव ने अपने मनभावन संतवाणियों को कई पुस्तकों में संकलित किया है; जैसे सत्संग-योग (द्वितीय भाग), संतवाणी सटीक, विनय-पत्रिका-सार सटीक और भावार्थ-सहित घटरामायण-पदावली ।
यदि किन्हीं को यह जानने की इच्छा हो कि सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज को कौन-कौन-सी संतवाणी बेहद पसंद थी, तो उन्हें 'महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन' नाम्नी इस पुस्तक का अवश्य अवलोकन करना चाहिए। इस पुस्तक में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के १३१ प्रिय भजनों का संकलन किया गया है। ये सारे भजन उन्हें कंठस्थ थे। इनमें से कुछ को मैंने रात्रिकालीन सत्संग में उन्हें गाते हुए सुना था और कुछ को वे अपने प्रवचन में प्रायः उद्धृत किया करते थे।
दिन में स्नान के बाद वे प्रायः कबीर साहब की विनती 'विनवत हौं कर जोड़ि के, सुनिये कृपानिधान' और गुरु नानकदेवजी की दो स्तुतियों - 'हे अचुत हे पारब्रह्म, अविनाशी अघनाश' तथा 'गुरदेव माता गुरदेव पिता, गुरदेव सुआमी परमेसुरा' का अवश्य पाठ किया करते थे। एक बार उनकी एक शिष्या ने उनसे प्रार्थना की कि हुजूर ! मुझे भक्ति का दान दिया जाए। गुरुदेव ने उसी समय अपने एक सेवक शिष्य से धनी धर्मदासजी की यह विनती 'भक्ति दान गुरु दीजिए, देवन के देवा' गववाकर सुनायी और उस शिष्या से कहा कि इस पद्य के भाव को जीवन में उतार लो, भक्ति प्राप्त हो जाएगी।
कहते हैं कि कुप्पाघाट, भागलपुर की गुफा में जब वे साधना-रत थे, तब वे पहले संत तुलसी साहब (हाथरसवाले ) की वाणी 'गगन धार गंगा बहै, कहैं संत सुजाना हो' का तन्मयतापूर्वक पाठ कर लिया करते थे, तब ध्यानाभ्यास में मौन होकर लीन हो जाते थे। इस पद्य का भाव आंतरिक साधनात्मक अनुभूतियों का साक्षात्कार करने की ललक मन में पैदा करता है।
'महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन' में संकलित अधिकांश संतवाणियाँ गुरुदेव के विभिन्न प्रवचन - संकलनों में देखी जा सकती हैं।
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