श्रीगीता-योग-प्रकाश
प्रभु प्रेमियों ! 'श्रीगीता-योग-प्रकाश' सब श्लोकों के अर्थ वा उनकी टीकाओं की पुस्तिका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण चाहिए, वही इसमें दरसाया गया है। गीता के बारे में फैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों में से एक का भी निराकरण यदि आप सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज से चाहते हैं, तो इस पुस्तक को शुरू से अंत तक एक बार अवश्य पढ़ें। आइये हम आपको इस पुस्तक के बारे में बताते हैं--
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गीता के सही तात्पर्य को समझाने और इसके सैकड़ों भ्रामक विचार निवारक पुस्तक 'श्रीगीता-योग-प्रकाश' की एक झलक
प्रभु प्रेमियों ! ' योग ' शब्द का अर्थ ' युक्त होना ' है । अर्जुन विषाद युक्त हुआ , इसी का वर्णन प्रथम अध्याय में है , इसीलिए उस अध्याय का नाम ' विषादयोग ' हुआ । जिस विषय का वर्णन करके श्रोता को उससे युक्त किया गया , उसको तत्संबंधी योग कहकर घोषित किया गया । अध्याय २ के श्लोक ४८ में कहा गया है - ' समत्वं योग उच्यते ' अर्थात् समता का ही नाम ' योग ' है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ' योग ' शब्द का अर्थ समता है । पुनः उसी अध्याय के श्लोक ५० में कहा गया है - ' योगः कर्मसु कौशलम् ' अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं । यहाँ ' योग ' शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न , एक तीसरे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ' योग ' शब्द के भिन्न - भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए । गीता स्थितप्रज्ञता को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बतलाती है । स्थितप्रज्ञता , बिना समाधि के सम्भव नहीं है । इसीलिए गीता के सभी साधनों के लक्ष्य को समाधि कहना अयुक्त नहीं है । इन साधनों में समत्व - प्राप्ति को बहुत ही आवश्यक बतलाया गया है । समत्व - बुद्धि की तुलना में केवल कर्म बहुत तुच्छ है । ( गीता २ / ४ ९ ) इसलिए समतायुक्त होकर कर्म करने को कर्मयोग कहा गया है । यही ' योगः कर्मसु कौशलम् ' है । अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं । कर्म करने का कौशल यह है कि कर्म तो किया जाय ; परन्तु उसका बंधन न लगने पावे । यह समता पर निर्भर करता है । गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्मबंधन में रखती है । समत्व - योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन , कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह , कर्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है । इतना महत्वपूर्ण ज्ञान देने वाली पुस्तक 'श्रीगीता-योग-प्रकाश' निम्न प्रकार से प्रकाशित है-- ( और जाने )
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सद्गुरु महर्षि मेँहीँ साहित्य सुमनावली
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| संतवाणी सटीक |
MS06 . संतवाणी सटीक- इसमें 31 सन्त- कवियों के चुने हुए पदों की व्याख्या महर्षिजी ने की है। इसका प्रथम प्रकाशन 1968 ई0 में हुआ था। संतवाणी सटीक के विषय में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के निम्नलिखित उद्गार हैं- "गुरु महाराज ने दृढ़ता के साथ यह ज्ञान बतलाया कि सब संतों का एक ही मत है । मैंने सोचा कि यदि बहुत - से संतों की वाणियों का संग्रह किया जाए , तो उस संग्रह के पाठ से गुरु महाराज की उपर्युक्त बात की यथार्थता लोगों को उत्तमता से विदित हो जाएगी । इसी हेतु मैंने यत्र-तत्र से उनका संग्रह किया ।" 'संतवाणी का संग्रह हुआ , बड़ा अच्छा हुआ ; परन्तु इन वाणियों का अर्थ भी आप कर दें , तो और भी अच्छा हो । ' मुझको भी यह बात अच्छी लगी । सबका संग्रह कर एक पुस्तकाकार में छपवा दिया जाए कि लोग उस पुस्तक से विशेष लाभ उठावें ।" संतों ने ज्ञान और योग - युक्त ईश्वर - भक्ति को अपनाया । ईश्वर के प्रति अपना प्रगाढ़ प्रेम अपनी वाणियों में दर्शाया है । उनकी यह प्रेमधारा ज्ञान से सुसंस्कृत तथा सुरत - शब्द के सरलतम योग - अभ्यास से बलवती होकर , प्रखर और प्रबल रूप से बढ़ती हुई अनुभूतियों और अनुभव से एकीभूत हो गई थी , जहाँ उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और परम मोक्ष प्राप्त हुआ था । उनकी वाणी उन्हीं गम्भीरतम अनुभूतियों और सर्वोच्च अनुभव को अभिव्यक्त करने की क्षमता से सम्पन्न और अधिकाधिक समर्थ है । ' संतवाणी सटीक ' में पाठकगण उसी विषय को पाठ कर जानेंगे । ( और जाने )
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MS05 श्रीगीता-योग-प्रकाश || गीता में फैले भ्रामक विचारों का महर्षि मेँहीँ द्वारा प्रमाणिक निराकरण
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
नवंबर 10, 2021
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